तकदीर का लिखा---Hindi Short Story

                                                                                                                                                          ’तकदीर का लिखा और नेति का बदा,कभी नहीं मिटता’ ,यह कहाँ तक सच है,मैं नहीं जानती । कारण जब कोई दुर्घटना या घटना घटती है,तब हम यही सोचकर,चुप रह जाते हैं कि ऐसा होना शायद तकदीर में ही लिखा होगा,तभीतो हुआ । पर तकदीर क्या है,इसमें क्या–क्या लिखा है;कोई नहीं जानता । फ़िर भी हम इसे मानते हैं । मुहम्मद इकबाल ने ठीक ही कहा है,’खुद को करो बुलंद इतना कि तकदीर भी पूछे,आखिर तुम्हारी रजा क्या है ।’अर्थात हम तकदीर से अपने कर्म द्वारा टकरा सकते हैं ।पर कहाँ तक,यह मुझे नहीं मालूम । खैर,जो भी हो,मैं तो बस इतना ही जानती हूँ,’आदमी,जब माँ के गर्भ में रहता है,तभी उसकी तकदीर तय हो जाती है । अन्यथा जनमते ही बच्चा मर क्यों जाता है?अमीर माँ–बाप का बॆटा बड़ा होकर,गरीब क्यों हो जाता है। कोई इनसान राह चलते फ़िसलकर,दुनिया से विदा क्यों हो जाता है;इत्यादि,इत्यादि हमें यह सोचने के लिए बाध्य कर देता है कि यह संसार,हमारी मर्जी से नहीं,किसी और की मर्जी से चल रहा है । वो जिसे जैसा रखना चाहता,वहवैसा बनकर जीता है ।
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  तभी तो भिखारी की संतान,भिखारी बनकर ही क्यों जीता है,क्योंकि तकदीर में उसे भिखारी बनकर जीना लिखा होता है?दिन–रात भीख माँगकर भी एक भिखारी अपने तकदीर को नहीं बदल सकता है । जब कि एक भिखारी की रोजाना आय १००/-से २००/-रुपये होती हैं । इतने ही पैसे,एक पान–चाय का दूकानदार भी रोजगार करता है;तो कहाँ उसके बच्चे भीख माँगते हैं । मैंने अपनी आँखों से देखा है,पीढ़ी दर पीढ़ी को भीख माँगते हुए । इस संदर्भ में मुझे एक वाकय यादआता है । जब मेरा छोटा बेटा,तारातल्ला(कोलकाता)में मेरिन की पढ़ाई कर रहा था,उसके कालेज के हाते के ठीक बाहर वह मंदिर आज भी है । जहाँ रोज सुबह–शाम हजारों की तायदाद में श्रद्धालुओं की भीड़ होती है । मंदिर इतना बड़ा है कि लोग धूप,बरसात सेबचने भी वहीं पहुँच जाते हैं। मैं भी अपने बेटे के अध्ययन के दौरान लगभग तीसो दिन वहाँ बैठा करती थी । यह जगह मेरे घर से लगभग पन्द्रह–बीस किलो मीटर दूर है । तब भी मैं रोज शाम को वहाँ जाती थी । बेटे का मोह वहाँ खीच लेजाता था । कारण उसे होस्टल में जो खाना दिया जाता था,उसे खाकर एक बच्चे का स्वस्थरहना मुश्किल था । इसलिए मैंघर से खाना,जूस लेकर नित शाम को उस मंदिर में पहुँचकरअपने बेटे के आने का इंतजार किया करती थी । जब वह शाम के पैरेड के बाद आकर खाना खा लेता था,तब मैं २ घंटे की बस यात्रा कर घर आती थी । इसीदौरान शाम के वक्त,मैं देखती थी कि एक बूढ़ा
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       बाबा(भिखारी)मंदिर के पांगण में आता है और बगल के कुंए पर स्नान कर,मंदिर मेंजाकर
फ़ूलमाला चढ़ाता है ।
उसके बाद मंदिर के एक कोने में बैठकर सूनी आँखों से हर आने–जाने वाले को निहारा करता है ।लगभग यह सिलसिला चार साल तक चला । एक दिन बाबाने मुझसे पूछ लिया,’बेटा!तुम यहाँ रोज औरत होकर क्योंआती हो?क्या बात है?मैं बाबा से रोज यहाँ आने का कारण बताई;सुनकरबाबा की आँखों में आँसू आ गये । कहा,’माँ की परिभाषा को और कितना लम्बा करना चाहती हो,तुम ।’मैंने कहा.’बाबा!यहतो मेरा फ़र्ज है,जिसे मैं पूरा कर रही हूँ ।’सुनकर,मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा,’ईश्वर करे,तुम अपने कार्य में सफ़ल होओ ।’तभी मैंने बाबा से पूछ लिया,’बाबा!आप भी तो यहाँ रोज शाम को सोने आते हो । आपके परिवार में आपके अलावा और कोई नहीं हैं क्या? ’सुनकर बाबा ने कहा,’हाँ थे,आज से पचास साल पहले तक मेरे पिताश्री मेरे साथ थे । तब मैं और मेरे पिता,दोनों यहाँ सोने आते थे । अब कोई नहीं है,मैं अकेला हूँ ।’सुनकर कुछ अजीब सा लगा । मैंने कहा,’क्या आपके पिताजी भी भिक्षा’
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  उन्होंने कहा, ’हाँ!यह रोजगार करना मैंने अपने पिताश्री से ही सीखा है । मेरे पिताजी भी मेरी ही तरह दिन भर के भिक्षाटन से जो पैसे मिलते थे,उससे फ़ूल,धूप चढ़ाना इस मंदिर में कभी नहीं भूलते थे,चाहे पेट भरने के पैसे बचे या नहीं । मैं भी यही करता हूँ । बारिश,शीत,प्रत्येक दिन मैं स्नान कर पहले यहाँ फ़ूलमाला अर्पण करता हूँ,फ़िर भोजन करता हूँ । भगवान के प्रति बाबा की इतनी श्रद्धा सुनकर मैं हैरान हो गई और मन ही मन सोचने लगी,’जिस भगवान की पूजा बाबा के पिता अपना पेट काटकर करते–करते विदा हो गए,बाद बाबा कर रहे हैं;बावजूद मंदिर में बैठे भगवान का दिल नहीं पसीजा । इन अस्सी सालों के प्रेम के इनाम स्वरूप कुछ भी नहीं । यह कैसा भगवान है?अब तो बाबा के भी दुनिया से विदा होने के दिन करीब आ चुके हैं ।’मेरी चुप्पी,बाबा को भाँपते देर न लगी । बाबा ने कहा,यह सब तकदीर है,जिसे कोई नहीं बदल सकता । मैंने कहा,बाबा!इस तकदीर को लिखने वाला भी तो यही है । फ़िर अपने लिखे को बदल क्यों नहीं सकता । बाबा ने कहा,’तुमने सुना नहीं;तकदीर का लिखा और भाग्य का बदा कभी नहीं मिटता ।



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