दुनियादारी निभाते एक आम आदमी संत कैसे बना ?

संत तुकाराम केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं वरन दुनिया भर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है। उनके अभंग अंगरेजी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं। उनका काव्य और साहित्य रत्नों का खजाना है। यही वजह है कि आज सैकड़ों वर्षों बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं।
दुनियादारी निभाते एक आम आदमी संत कैसे बना, साथ ही किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर उत्कट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्मविकास साधा जा सकता है। यह विश्वास आम इंसान के मन मेंनिर्माण करने वाले थे संत तुकाराम यानी तुकोबा।
                                                                                                                                                                अपने विचारों, अपने आचरण औरअपनी वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते अपनी जिंदगी को परिपूर्ण करने वाले तुकाराम जनसामान्य को हमेशा कैसे जीना चाहिए, यहीप्रेरणा देते हैं।
उनके जीवन में एक समय ऐसा भी जब वे जिंदगी के पूर्वार्द्ध में आए हादसोंसे हार कर निराश हो चुके थे। जिंदगी पर उनका भरोसा उठ चुका था। ऐसे में उन्हेंकिसी सहारे की बेहद जरूरत थी, लौकिक सहारा तो किसी काथा नहीं। सो पाडुरंग पर उन्होंने अपना सारा भार सौंप दिया और साधना शुरू की, जबकि उस वक्त उनके गुरुकोई भी नहीं थे।
                                                                                                                                                                 उन्होंने विट्ठल (विष्णु) भक्ति की परपंरा का जतन करके नामदेव भक्ति की अभंग रचना की। दुनियादारी से लगाव छोड़ने की बात भले ही तुकाराम ने कही हो लेकिन दुनियादारी मत करो, ऐसा कभीनहीं कहा। सच कहें तो किसी भी संत ने दुनियादारी छोड़ने की बात की ही नहीं। उल्टे संत नामदेव, एकनाथ नेसही व्यवस्थित तरीके से दुनियादारी निभाई।
                                                                                                                                                                      ऐसे महान संत कवि तुकाराम का 17वीं सदी में पुणे के देहू कस्बे में जन्म हुआ था। उनके पिता छोटे-से काराबोरी थे। उन्होंने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली। वे विट्ठल यानी विष्णु के परम भक्त थे।
तुकराम जी की गहरी अनुभव दृष्टि बेहद गहरी व ईशपरक रही, जिसके चलते उन्हें कहने में संकोच न था कि उनकी वाणी स्वयंभू, ईश्वर की वाणी है। उनका कहना था कि दुनिया में कोई भी दिखावटी चीज नहीं टिकती। झूठ लंबे समय तक संभाला नहीं जा सकता। झूठ से सख्त परहेज रखने वाले तुकाराम को संत नामदेव का रूप माना गया है। इनका समय सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध का रहा।
                                                                                                                                                                 वे समर्थ रामदास व छत्रपति शिवाजी के समकालीन थे। आपका व्यक्तित्व बड़ा मौलिकव प्रेरणास्पद है। निम्न वर्ग में जन्म लेने के बावजूद वे कई शास्त्रकारोंव समकालीन संतों से वे बहुतआगे थे। वे धर्म व अध्यात्मके साकार विग्रह थे।


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