महाप्रज्ञजी-- संत महापुरुष
अपने आचार, विचार एवं व्यवहार की श्रेष्ठता शिखर-सी ऊंचाई एवं समुद्र-सी गहराई लिए तेरापंथ धर्मसंघ के अनेकांत को जीवन में धारण करने वाले यशस्वी, तेजस्वी अनुशासित जीवन के पक्षधर आचार्य महाप्रज्ञजी का जीवन अलौकिक शक्ति का प्रतिबिंबथा। जो भी उनके सान्निध्य में आया उसने अपने को धन्य समझा।
महाप्रज्ञजी को आचार्य तुलसी का स्नेह एवं अपनत्व मिला एवं उनकी निश्रा में मुनिवृत के पालन की जो सीख मिली उसे अंगीकार कर सारे विश्व में एक नए समाज के निर्माण की नींव रखी। जीवन में आगे बढ़ने की उनकी सोच सभी सामाजिक-धार्मिक संकीर्णताओं को पीछे छोड़ देती है। ऐसे आचार्यश्री का हमारे बीच न रहना सिर्फ तेरापंथ संघ का ही नहीं वरनसारे विश्व में एक चिंतक, विचारक एवं सुधारक की क्षति हुई है।
आचार्य महाप्रज्ञ अनुशासन,समन्वय, संस्कार व सामाजिक एकता के देवता थे। यह सच हैकि आज जैन समाज को ही नहीं वरन संपूर्ण मानव समाज को अपूर्णनीय क्षति हुई है। अपने विचारों, अपने कृत्यों और अपनी कृतियों के माध्यम से आचार्य महाप्रज्ञजी जैसी महान आत्मा जहां कहीं भी हो सम्यक्त्व व संबुद्धता को प्राप्त होगी।
मृत्यु एक कसौटी है, जो जीवन के हर पल में साथ चलतीहै, आचार्य महाप्रज्ञ उस कसौटी को लेकर हम सबके बीच में जिए। समता, समाधि, सम्यक्त्व की प्रेरणा देतेरहे और स्वयं मृत्यु से हाथमिलाते हुए उसका स्वागत करते रहे और हम सबसे बिदा हो गए।
आचार्य महाप्रज्ञजी का अंतिम संदेश यही था जैसा मैं विलीन हो गया, एक दिन तुम भी विलीन हो जाओंगे। इसलिए नश्वर काया में जो अनश्वर बैठा हुआ है उसे पहचानो और उस तत्व का स्वागत करो जो तुम्हारा है।
वे अपनी साधना का सुपरिणाम लेकर गए हैं। लाखों भक्त मिलकर भी इसकी पूर्ति नहीं कर सकते। आज उनका अभाव सारेदेश को अखर रहा है। उनका व्यवहार, उनकी मधुरता, उनकीसमन्वय नीति का हम सब पालन करेंगे, यही सोच और विचार हमें अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
ऐसे महान आचार्य महाप्रज्ञका जन्म विक्रम संवत 1977 (1920) में आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के टमकोर के चोरड़िया परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। आपका जन्म नाम नथमल था। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण माता बालूजी ने ही किया, जो धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं इसी कारण उनमें धार्मिक चेतना का उदय हुआ।
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आचार्य महाप्रज्ञ अनुशासन,समन्वय, संस्कार व सामाजिक एकता के देवता थे। यह सच हैकि आज जैन समाज को ही नहीं वरन संपूर्ण मानव समाज को अपूर्णनीय क्षति हुई है। अपने विचारों, अपने कृत्यों और अपनी कृतियों के माध्यम से आचार्य महाप्रज्ञजी जैसी महान आत्मा जहां कहीं भी हो सम्यक्त्व व संबुद्धता को प्राप्त होगी।
मृत्यु एक कसौटी है, जो जीवन के हर पल में साथ चलतीहै, आचार्य महाप्रज्ञ उस कसौटी को लेकर हम सबके बीच में जिए। समता, समाधि, सम्यक्त्व की प्रेरणा देतेरहे और स्वयं मृत्यु से हाथमिलाते हुए उसका स्वागत करते रहे और हम सबसे बिदा हो गए।
आचार्य महाप्रज्ञजी का अंतिम संदेश यही था जैसा मैं विलीन हो गया, एक दिन तुम भी विलीन हो जाओंगे। इसलिए नश्वर काया में जो अनश्वर बैठा हुआ है उसे पहचानो और उस तत्व का स्वागत करो जो तुम्हारा है।
वे अपनी साधना का सुपरिणाम लेकर गए हैं। लाखों भक्त मिलकर भी इसकी पूर्ति नहीं कर सकते। आज उनका अभाव सारेदेश को अखर रहा है। उनका व्यवहार, उनकी मधुरता, उनकीसमन्वय नीति का हम सब पालन करेंगे, यही सोच और विचार हमें अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
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