'सुख' को हजम करना मुश्किल

जीवन में कई बार ऐसा भी होता है कि दुःख आने पर हमारे संगी-साथी हमारा साथ छोड़ देते हैं और भविष्य में सुखद दिन लौटने पर भी वे हमारे जीवन में वापस नहीं आते। किसी कवि ने ऐसी परिस्थिति पर कहा है कि -
कभी-कभी दुःखों की तरह
सुख भी एकांतवास में सहने पड़ते हैं
तब लगता है
ये सुख भी एक शाप हैं।
इसलिए कहा जाता है कि- दुःख आने पर घबराना नहीं और सुख आने पर इतराना नहीं। हम जीवन में अच्छे संकल्प लेकर सुख और दुःख दोनों से पार पा सकते हैं। क्या करें, जीवनरूपी नदी के सुख और दुःख दो किनारे जो हैं। उस विधाता ने किसी को भी मझधार में रहने की व्यवस्था नहीं की है। अतः इंसान या तो सुख के किनारे पर रहेगा या दुःख के दूसरे किनारे पर।
जीवन के इस परम् सत्य को जान लेना जरूरी है कि- दुःख की अपेक्षा सुख सहना या उसे आसानी से हजम करना अधिक कठिन है। एक अच्छे इंसान को यदि 'सुखार्थी' बनना है तो उसे चाहिए कि वह स्वयं को हमेशा 'जिज्ञासु' बनाए रखे और उसमें 'विनय' भी होना ही चाहिए। क्योंकि जिसमें विनय नहीं होगा उसे ज्ञान मिलेगा कैसे? फिर बिना ज्ञान के 'सुख' मिले तो कैसे?
तालाब और नदी में पानी बहुत है, यदि उसमें 'गागर' तिरछी (विनय की मुद्रा में) करके नहीं डुबोई जाए तो उसमें पानी भरेगा कैसे? इसी प्रकार सुख का सागर हमारे चारों तरफ है, लेकिन हमारी 'जीवन गगरिया' में सुखरूपी पानी भरना है तो 'विनय' होना ही चाहिए, क्योंकि बिना विनय के सारे सुख, दुःखों के समान ही हैं।
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